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हु॒वे वो॑ दे॒वीमदि॑तिं॒ नमो॑भिर्मृळी॒काय॒ वरु॑णं मि॒त्रम॒ग्निम्। अ॒भि॒क्ष॒दाम॑र्य॒मणं॑ सु॒शेवं॑ त्रा॒तॄन्दे॒वान्त्स॑वि॒तारं॒ भगं॑ च ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

huve vo devīm aditiṁ namobhir mṛḻīkāya varuṇam mitram agnim | abhikṣadām aryamaṇaṁ suśevaṁ trātṝn devān savitāram bhagaṁ ca ||

पद पाठ

हु॒वे। वः॒। दे॒वीम्। अदि॑तिम्। नमः॑ऽभिः। मृ॒ळी॒काय॑। वरु॑णम्। मि॒त्रम्। अ॒ग्निम्। अ॒भि॒ऽक्ष॒दाम्। अ॒र्य॒मण॑म्। सु॒ऽशेव॑म्। त्रा॒तॄन्। दे॒वान्। स॒वि॒तार॑म्। भग॑म्। च॒ ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:50» मन्त्र:1 | अष्टक:4» अध्याय:8» वर्ग:8» मन्त्र:1 | मण्डल:6» अनुवाक:5» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब पन्द्रह ऋचावाले पचासवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् जन किसलिये क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे मैं (नमोभिः) सत्कार और अन्नादिकों के साथ (वः) तुम लोगों के (अभिक्षदाम्) जो भिक्षा नहीं देते उनके (मृळीकाय) सुख के लिये (अदितिम्) जो माता नहीं उस (देवीम्) देदीप्यमान विदुषी वा (वरुणम्) उदान के समान सर्वोत्कृष्ट वा (मित्रम्) प्राण के समान प्यारे वा (अग्निम्) अग्नि तथा (अर्यमणम्) न्यायकारी और (सुशेवम्) सुन्दर सुखवाले जन को वा (त्रातॄन्) रक्षा करनेवाले व (देवान्) विद्वानों व (सवितारम्) सत्कर्मों में प्रेरणा देनेवाले राजा (भगम्, च) और ऐश्वर्य्य को (हुवे) बुलाता वा देता हूँ, वैसे इनको हमारे लिये तुम बुलाओ वा देओ ॥१॥
भावार्थभाषाः - जो विद्वान् जन सुपात्रों के लिये भिक्षा देते और सब को पुरुषार्थी कर उनके लिये विदुषी माता वा वरुण आदि को लेते हैं, वे जगत् के हितैषी हैं ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वांसः किमर्थं किं कुर्य्युरित्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यथाऽहं नमोभिर्वोऽभिक्षदां मृळीकायाऽदितिं देवीं वरुणं मित्रमग्निमर्यमणं सुशेवं त्रातॄन् देवान् सवितारं भगं च हुवे तथैतानस्मदर्थं यूयमाह्वयत ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (हुवे) आह्वयाम्याददे वा (वः) युष्माकम् (देवीम्) देदीप्यमानां विदुषीम् (अदितिम्) अमातरम् (नमोभिः) सत्कारान्नादिभिः (मृळीकाय) सुखाय (वरुणम्) उदानमिवोत्कृष्टम् (मित्रम्) प्राण इव प्रियम् (अग्निम्) पावकम् (अभिक्षदाम्) ये भिक्षां न ददति तेषाम् (अर्यमणम्) न्यायकारिणम् (सुशेवम्) सुष्ठुसुखम् (त्रातॄन्) रक्षकान् (देवान्) विदुषः (सवितारम्) सत्कर्मसु प्रेरकं राजानम् (भगम्) ऐश्वर्य्यम् (च) ॥१॥
भावार्थभाषाः - ये विद्वांसः सुपात्रेभ्यो भिक्षां प्रददति सर्वान् पुरुषार्थिनः कृत्वैतदर्थं विदुषीं मातरं वरुणादींश्चाददति ते जगद्धितैषिणः सन्ति ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात विश्वदेवाचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची यापूर्वीच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - जे विद्वान सुपात्रांना भिक्षा (दान) देतात व सर्वांना पुरुषार्थी करून त्यांच्यासाठी विदुषी माता व वरुणला (सर्वश्रेष्ठ असणाऱ्याला) आमंत्रित करतात ते जगाचे हितकर्ते असतात. ॥ १ ॥